भाग ४
आत्मसिद्धियोग अध्याय १
पूर्णयोग का मूल सिद्धान्त
हमारी मानव-सत्ता की किसी एक या सभी शक्तियों (करणों) को लेकर उन्हें भागवत सत्तातक पहुंचने के साधन बना देना-यही योग का मूल सिद्धान्त है । एक साधारण योग में सत्ता की किसी एक मुख्य शक्ति (करण) या उसकी शक्तियों (करणों) के किसी एक समूह को साधन, वाहन या पथ बनाया जाता है । पर समन्वयात्मक योग में सभी शक्तियों (करणों) को एकत्र कर रूपात्तरकारी साधन-सामग्री में सम्मिलित कर लिया जायेगा ।
हठयोग में साधन है शरीर एवं प्राण । शरीर की समस्त शक्ति को आसन तथा अन्य भौतिक प्रक्रियाओं के द्वारा उसकी चरम सीमाओंतक या सीमातीत रूप में स्थिर, संगृहीत, शुद्ध, उन्नत और एकाग्र किया जाता है; प्राण की शक्ति को भी इसी प्रकार आसन और प्राणायाम के द्वारा शुद्ध, उन्नत और एकाग्र किया जाता है । फिर इन एकाग्र शक्तियों को उस भौतिक केन्द्र की ओर प्रचालित किया जाता है जिसमें दिव्य चेतना, मानव-देह के भीतर, गुह्य रूप में स्थित है । ऐसा करने से प्राण-तत्त्व की शक्ति या प्रकृति-शक्ति, जो पृथ्वी-सत्ता के सबसे निचले स्नायु-चक्र (मूलाधार) में सोयी हुई अपनी सब गुप्त सामर्थ्यों के साथ हमारी देह में कुण्डल मारे पड़ी है, जाग उठती है । उसकी सामर्थ्थों को हमने सोयी हुई इस कारण कहा है कि हमारी साधारण क्रियाओं में इनका उतना ही भाग सजग कार्य के रूप में प्रकट होता है जितना मानवजीवन के परिमित प्रयोजनों के लिये पर्याप्त है । हां, तो यह कुण्डलित प्राण-शक्ति जागकर एक के बाद एक केन्द्र में से होती हुई ऊपर की ओर आरोहण करती जाती है । इस प्रकार आरोहण करती हुई यह अपने मार्ग में हमारी सत्ता की प्रत्येक क्रमिक ग्रन्थि अर्थात् स्नायविक प्राण, भावमय हृदय और साधारण मन, वाणी, दृष्टि, संकल्प और उच्चतर ज्ञान की सामर्थ्यों को भी जगाती चलती है, जिससे कि अन्त में यह मस्तिष्क के द्वारा तथा इसके ऊपर दिव्य चेतना से जा मिलती है तथा उसके साथ एक हो जाती है ।
राजयोग में चुना हुआ साधन है मन । इसमें सबसे पहले हमारे साधारण मन को संयमित और शुद्ध करके भागवत सत्ता की ओर प्रेरित किया जाता है, फिर आसन और प्राणायाम की एक संक्षिप्त प्रक्रिया के द्वारा हमारी सत्ता की भौतिक शक्ति को स्थिर, शान्त और एकाग्र किया जाता है, प्राणशक्ति को एक ऐसी तालबद्ध गति का उन्मुक्त रूप दे दिया जाता है जिसे इच्छानुसार रोका जा सकता है और साथ ही उसे अपनी ऊर्ध्वमुख क्रिया की उच्चतर शक्ति के रूप में एकाग्र कर दिया जाता है, मन अपने आधारभूत शरीर और प्राण की इस महत्तर क्रिया ६१५ और एकाग्रता से समुष्ट और सबल होकर स्वयं भी अपने सब क्षोभ और आवेग तथा अपनी अभ्यासगत विचार-तरंगों से रहित एवं शुद्ध हो जाता है, भ्रम और विक्षेप से मुक्त हो जाता है, अपनी एकाग्रता की उच्चतम शक्ति प्राप्त कर लेता है, समाधि की मग्नावस्था में लीन हों जाता है । इस साधना के द्वारा दो लक्ष्यों की प्राप्ति होती है जिनमें से एक तो कालगत है और दूसरा नित्य । मन की शक्ति एक अन्य एकाग्र क्रिया में ज्ञान की असामान्य क्षमताओं, अमोघ संकल्प, ग्रहण-क्रिया की गभीर ज्योति तथा विचार-विकिरण की शक्तिशाली ज्योति का विकास करती है जो कि हमारे सामान्य मन के संकुचित क्षेत्र से सर्वथा परे की वस्तुएं हैं; यह यौगिक या गुह्य शक्तियां किंवा सिद्धियां प्राप्त कर लेती है जिनके चारों ओर कितने ही अधिक रहस्य का जाल बुन दिया गया है जो आवश्यक तो बिलकुल नहीं है, किन्तु फिर भी शायद हितकर ही है । परन्तु एकमात्र अन्तिम लक्ष्य एवं एकमात्र सर्वप्रधान लाभ यह है कि मन शान्त होकर और प्रगाढ़ समाधि में डूबकर दिव्य चेतना में लीन हो सकता है और आत्मा को भगवान् के साथ एक होने के लिये बन्धन से मुक्त किया जा सकता है ।
त्रिमार्ग मनुष्य के मनोमय अन्तरात्म-जीवन की तीन मुख्य शक्तियों को अपने चुने हुए करणों के रूप में ग्रहण करता है । ज्ञानमार्ग बुद्धि और मानसिक अन्तर्दृष्टि को चुनता है और शुद्धि एवं एकाग्रता तथा ईश्वरोन्मुख जिज्ञासा की एक विशेष साधना के द्वारा वह इन्हें सबसे महान् ज्ञान एवं अन्तर्दर्शन अर्थात् ईश्वर-ज्ञान और ईश्वर-दर्शन की प्राप्ति के लिये अपने साधन बना लेता है । उसका लक्ष्य भगवान् का साक्षात्कार और ज्ञान प्राप्त करना तथा वही बन जाना है । कर्मों का मार्ग किंवा क्रियामय मार्ग कर्मों के कर्ता के संकल्प को अपने करण के रूप में चुनता है; वह जीवन को भगवान् के प्रति यज्ञ की हवि का रूप दे देता है और शुद्धि किंवा एकाग्रता के द्वारा तथा भगदइच्छा के प्रति अधीनता की एक विशेष साधना से इसे विश्व के दिव्य प्रभु के साथ मानव-आत्मा के सम्पर्क और वृद्धिशील एकत्व का साधन बना देता है । भक्तिमार्ग आत्मा की भावमय एवं सौन्दर्यलक्षी शक्तियों को चुनता है और उन सबको पूर्ण पवित्रता एवं तीव्रता के भाव में तथा खोज के असीम आवेग के साथ भगवान् की ओर मोड़कर भागवत सत्ता के साथ एकत्व के एक या अनेक सम्बन्धों के द्वारा भगवान् को प्राप्त करने के साधन बना देता है । इस सब मार्गों का लक्ष्य अपने-अपने ढंग से परमात्मा के साथ मानव आत्मा का मिलन या एकत्व साधित करना है ।
किसी भी योग की प्रक्रिया का स्वरूप, जिस करण का वह प्रयोग करता है उसीके अनुसार होता है; इस प्रकार हठयोग की प्रक्रिया मनो- भौतिक है, राजयोग की मानसिक और आन्तरात्मिक, ज्ञानमार्ग आध्यात्मिक और प्रज्ञात्मक है, भक्तिमार्ग आध्यात्मिक, भाविक और सौन्दर्यबोधात्मक है, कर्ममार्ग कार्यतः आध्यात्मिक और ६१६ क्रिया-शक्तिमय है । इनमें से प्रत्येक अपनी विशिष्ट शक्ति के तरीकों के अनुसार परिचालित होता है । परन्तु समस्त शक्ति अन्त में एक ही शक्ति है, समस्त शक्ति वस्तुत: आत्म-शक्ति ही है । प्राण, शरीर और मन की साधारण प्रक्रिया में यह सत्य प्रकृति की एक ऐसी विकीर्ण विभेदक और विभाजक क्रिया के द्वारा, जो हमारे समस्त व्यापारों की एक सामान्य शर्त हैं, सर्वथा आच्छादित रहता है, यद्यपि वहां भी यह अन्त में प्रत्यक्ष हो जाताहै; क्योंकि समस्त भौतिक शक्ति प्राणिक, मानसिक, आन्तरात्मिक और आध्यात्मिक शक्ति को अपने अन्दर गुह्य रूप में धारण किये है और अन्त में यह एकमेव शक्ति के इन रूपों को अवश्य उन्मुक्त करेगी, प्राणिक शक्ति अन्य सब रूपों को अपने अन्दर छुपाये है तथा उन्हें सक्रिय रूप में प्रकट करती है, मानसिक शक्ति प्राण और शरीर तथा उनकी शक्तियों एवं क्रियाओं के आधार पर स्थित रहती हुई, हमारी सत्ता की अविकसित या केवल अंशत: विकसित आन्तरात्मिक तथा आध्यात्मिक शक्ति को अपने अन्दर धारण किये है । पर जब योग के द्वारा इनमें से किसी शक्ति को विकीर्ण और विभाजक क्रिया से ऊपर उठाकर उसकी परमोच्च सीमातक पहुंचा दिया जाता है, उसे एकाग्र कर दिया जाता है तो वह एक व्यक्त आत्म-शक्ति बन जाती है तथा सब शक्तियों की मूल एकता को प्रकाशित कर देती है । अतएव, हठयोग की प्रक्रिया का भी अपना शुद्ध आन्तरात्मिक एवं आध्यात्मिक परिणाम होता है, राजयोग की प्रक्रिया मानसिक साधनों से एक अत्युच्च आध्यात्मिक परिणति लाभ करती है । त्रिमार्ग अपने खोज के साधन तथा अपने लक्ष्यों में पूर्णत: मानसिक और आध्यात्मिक प्रतीत हो सकता है, पर उससे भी ऐसे फल प्राप्त हो सकते हैं जो अधिक स्वाभाविक रूप में अन्य मार्गों के ही फल होते हैं । ये फल एक सहज-स्वाभाविक एवं अनैच्छिक विकास के रूप में ही हमारे सामने उपस्थित होते हैं, और इसका कारण भी यही है कि आत्म-शक्ति ही सर्व-शक्ति है और जहां यह एक दिशा में अपनी पराकाष्ठा को पहुंचती है वहां इसकी अन्य सम्भावनाएं भी एक वास्तविक तथ्य या एक आरम्भिक सम्भाव्य शक्ति के रूप में प्रकट होने लगती है । शक्तियों की यह एकता तुरन्त ही संकेत देती है कि एक समन्वयात्मक योग सम्भव है ।
तान्त्रिक साधना अपने स्वरूप से ही एक समन्वयात्मक प्रणाली है । इसने इस विशाल वैश्व सत्य को अधिकृत कर लिया है कि सत्ता के दो ध्रुव हैं, ब्रह्म और शक्ति, आत्मा और प्रकृति, जिनकी तात्त्विक एकता सत्ता का रहस्य है; इसने यह भी जान लिया है कि प्रकृति आत्मा की शक्ति है या वह वास्तव में शक्तिरूप आत्मा ही है । मनुष्य की प्रकृति को ऊंचा उठाकर उसे आत्मा की व्यक्त शक्ति बना देना ही इसकी प्रणाली है और आध्यात्मिक रूपान्तर के लिये यह मनुष्य की सारी-की-सारी प्रकृति को एकत्र करती है । यह अपनी साधन-प्रणाली में इन विधियों को समाविष्ट करती है--शक्तिशाली हठयौगिक प्रक्रिया और विशेषकर ६१७ स्नायु-केन्द्रों (चक्रों) का उद्घाटन तथा ब्रह्म से मिलने के लिये ऊपर की ओर जाती हुई जागरित शक्ति का अपने मार्ग में उन केन्द्रों में से गुजरना, राजयौगिक शुद्धि, ध्यान और एकाग्रता का सूक्ष्मतर दबाव, संकल्प-शक्ति का समर्थतम आलम्बन, भक्ति की प्रेरक-शक्ति और ज्ञान की पद्धति । परन्तु वह इन विशिष्ट योगों की विभिन्न शक्तियों को प्रभावशाली रूप में एकत्र करके ही नहीं रुक जाती । दो दिशाओं में यह अपनी समन्वयात्मक प्रवृत्ति के द्वारा योग-पद्धति के क्षेत्र को विस्तृत करती है । सर्व-प्रथम, यह मानवीय गुण-सामर्थ्य, कामना और कार्य-व्यापार के मुख्य स्रोतों (करणों) में से कई एक को दृढ़तापूर्वक अपने हाथ में लेती है और उन्हें एक बलवर्द्धक साधना में से गुजारती है और ऐसा करने में इसका पहला लक्ष्य यह होता है कि आत्मा अपनी प्रेरक शक्तियों का प्रभुत्व प्राप्त कर ले और अन्तिम प्रयोजन यह होता है कि वह इन्हें एक दिव्यतर आध्यात्मिक स्तरतक ऊंचा उठा ले जाये । और, फिर यह योग के लक्ष्यों में कैवल उस मुक्ति को ही समाविष्ट नहीं करती जो विशेष-विशेष पद्धतियों का एकमात्र सर्व-प्रधान लक्ष्य है, बल्कि आत्मा की शक्ति के विख्यात उपभोग (भुक्ति) को भी समाविष्ट करती है जिसे अन्य पद्धतियां मार्ग में प्रासंगिक, आंशिक और नैमित्तिक रूप से तो स्वीकार कर सकती हैं, पर जिसे वे अपना हेतु या लक्ष्य बनाने से कतराती हैं । इस प्रकार, तान्त्रिक साधना एक अधिक साहसपूर्ण एवं विशालतर प्रणाली है ।
समन्वय की जिस पद्धति का हम अनुसरण करते आ रहैं हैं उसमें मुल तत्त्व के एक अन्य ही सूत्र का अनुसरण किया गया है जिसका मृल योग की शक्यताओं के एक और ही दृष्टिकोण में निहित है । यह तन्त्र के लक्ष्य को प्राप्य करने के लिये वेदान्त की पद्धति को लेकर चलता है । तान्त्रिक प्राणाली में शक्ति ही सर्व--प्रधान है, वही आत्मा की खोज की कुंजी बनती है; हमारे समन्वय में आत्मा, पुरुप सर्व- प्रधान है, वही शक्ति को ऊपर ले जाने की रहस्यमय कुंजी, बनता है । तन्त्र -प्राणाली निचले तल से आरम्भ करती है और आरोहण की सीढ़ी पर ऊपर की ओर पग रखती हुई शिखरतक पहुंचती है; अतएव, सबसे पहले यह शरीर ओर उसके केन्द्रों (चक्रों) के स्नायु-मण्डल में जागरित शक्ति को क्रिया पर बल देती हैं; षटू पद्मों (चक्रों) का उदघाटन आत्मा की शक्ति के स्तरों का छी उद्घाटन है । हमारा समन्वय मनुष्य को देहगत आत्मा की अपेक्षा कहीं अधिक मनोगत आत्मा मानता है और उसके अन्दर यह शक्ति भी स्वीकार करता है कि वह इसी स्तर से योग-- साधना आरम्भ कर सकता है, उच्चतर आध्यात्मिक शक्ति एव सत्ता की ओर अपने-आपको सीधे खोल देनेवाले मनोमय पुरुष की शक्ति से अपनी सत्ता को आध्यात्मिक बना सकता है और इस प्रकार वह जिस उच्चतर शक्ति को प्राप्त करता तथा कार्यरत कर देता है उसके द्वारा वह अपनी समृची प्रक्रति को पूर्ण बना सकता है । इसी कारण हमने आरम्भ में इस बात पर बल दिया है कि मनोमय ६१८ पूर्णयोग का मूल सिद्धान्त
पुरुष की शक्तियों का उपयोग करके आत्मा के तालों में ज्ञान, कर्म और प्रेम की त्रिविध कुंजी लगायी जाय । हठयोग की विधियों को छोड़ा जा सकता है--यद्यपि उनके आंशिक प्रयोग में हमें कोई आपत्ति नहीं, --राजयोग की विधियां एक अनियमित अंग के रूप में ही प्रवेश पा सकती हैं । छोटे-से-छोटे मार्ग के द्वारा आध्यात्मिक शक्ति और सत्ता के विस्तृत-से-विस्तृत विकासतक पहुंचना और उसके द्वारा मानव-जीवन के सम्पूर्ण क्षेत्र में मुक्त प्रकृति को दिव्य बनाना ही हमारा उत्प्रेरक हेतु है ।
जो मृल सूत्र हमारी दष्टि ले सम्मुख है वह है आत्म-समर्पण, मानव-सत्ता को भगवान् की सत्ता, चेतना, शक्ति और आनन्द में उत्सर्ग कर देना, मनुष्य अर्थात् मनोमय प्राणी की आत्मा में भगवान् से मिलने के जितने भी केन्द्र-बिन्दु हैं उन सबपर मिलन या अन्तःसम्पर्क प्राप्त करना, जिसके द्वारा स्वयं भगवान् अपने को पर्दे के पीछे छुपाये बिना, प्रत्यक्ष रूप में मानव-यन्त्र के शासक और स्वामी बनकर, अपने सान्निध्य और मार्गदर्शन की ज्योति से मनुष्य को दिव्य जीवन यापन करने के लिये प्रकृति की सभी शक्तियों में पूर्ण बना दें । यहां हम योग के लक्ष्यों के और भी अधिक विस्तार पर पहुंच जाते हैं । योगमात्र का सर्वसामान्य प्रारम्भिक उद्देश्य है मानव-आत्मा की अपने वर्तमान प्राकृत अज्ञान एवं सीमाबन्धन से मुक्ति, उसका आध्यात्मिक सत्ता में पहुचकर मुक्त हो जाना, परमोच्च आत्मा और भागवत सत्ता के साथ उसका मिलन । परन्तु साधारणतया इसे आरम्भिक ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण एवं अन्तिम लक्ष्य बना दिया जाता है; आध्यात्मिक सत्ता का उपभोग तो इसमें अवश्य प्राप्त होता है, पर वह या तो आत्म-स्वरूप की नीरवता के अन्दर मानवीय एवं वैयक्तिक सत्ता के लय के रूप में प्राप्त होता है या फिर किसी उच्चतर स्तर पर एक अन्य प्रकार के जीवन में । तान्त्रिक पद्धति मुक्ति को अपना अन्तिम लक्ष्य तो नियत करती है, पर एकमात्र लक्ष्य नहीं, वह अपने मार्ग में मानव-जीवन के अन्दर आध्यात्मिक शक्ति, ज्योति और आनन्द की समग्र पूर्णता एवं मुक्ति को ग्रहण करती है इतना ही नहीं, बल्कि उसे उस परमोच्च अनुभव की झांकी भी प्राप्त होती है जिसमें मोक्ष और वैश्व व्यापार एवं उपभोग समस्त वैषम्य-विरोधों पर अन्तिम विजय की अवस्था में एकीकृत हो जाते हैं । हमारी आध्यात्मिक शक्यताओं के सम्बन्ध में यह जो विशालतर दृष्टि है इसीको लेकर हम आगे बढ़ते हैं, किन्तु हम एक और बात पर भी बल देते हैं जो हमार योग में एक अधिक पूर्ण सार्थकता ले आती है । हम मनुष्य में स्थित आत्मा को केवल एक ऐसी व्यक्तिगत सत्ता नहीं मानते जो भगवान् के साथ परात्पर एकत्व पाने के लिये आगे बढ़ रही है, बल्कि उसे एक ऐसी विराट् सत्ता भी मानते हैं जो सब जीवों तथा समस्त प्रकृति में भगवान् के साथ एकत्व प्राप्त कर सकती है और इस विस्तृत दृष्टि को हम इसका पूरे-का-पूरा क्रियात्मक महत्त्व प्रदान करते हैं । मानव-आत्मा का व्यक्तिगत मोक्ष ६१९ और आध्यात्मिक सत्ता, चेतना और आनन्द में भगवान् के साथ मिलन का व्यक्तिगत उपभोग सदा ही योग का प्रथम लक्ष्य होना चाहिये; अतएव, विश्व में भगवान् के साथ एकत्व का मुक्त उपभोग, उसका दूसरे नम्बर का लक्ष्य हो जाता है; पर इसमें से एक तीसरा लक्ष्य भी प्रकट होता है, अर्थात् मानवजाति में भगवान् का जो आध्यात्मिक उद्देश्य है उससे सहानुभूति रखते हुए तथा उसमें भाग लेकर सर्वभूतों के साथ दिव्य एकता के अर्थ को कार्यरूप में परिणत करना । ऐसी अवस्था में व्यक्तिगत योग अपने पृथक् रूप को त्यागकर मानवजाति में दिव्य प्रकृति के सामूहिक योग का अंग बन जाता है । मुक्ति प्राप्त व्यक्ति अपनी अध्यात्म-सत्ता एवं आत्म-स्वरूप में भगवान् के साथ एक होकर अपनी प्राकृत सत्ता में एक ऐसा यन्त्र बन जाता है जो आत्म-सिद्धि प्राप्त करने में तत्पर रहता है, ताकि मानवजाति में भगवान् पूर्ण रूप से प्रस्कुटित हो सकें ।
इस प्रस्कुटन की दो अवस्थाएं होती हैं; उनमें से पहली है--पृथक्कारी मानव--अहंभाव में से निकलकर आत्मा की एकता में विकास, इसके बाद दिव्य प्रकृति की उसके अपने वास्तविक एवं उच्चतर रूपों में प्राप्ति, पर उसकी प्राप्ति हमें मानसिक सत्ता के उन निम्नतर रूपों में नहीं करनी होगी जो वैश्व व्यक्ति में दिव्य प्रकृति के यथार्थ मूल लेख नहीं हैं, बल्कि उसका विकृत रूपान्तर हैं, दूसरे शब्दों में, हमें एक ऐसी पूर्णता को अपना लक्ष्य बनाना होगा जिसके फलस्वरूप हमारी मानसिक प्रकृति पूर्ण आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक प्रकृतितक ऊंची उठ जाये । अतएव, ज्ञान, प्रेम और कर्म के इस सर्वांगीण योग को आध्यात्मिक तथा विज्ञानमय आत्म--सिद्धि के योग के रूप में विस्तृत करना होगा । अतिमानसिक ज्ञान, संकल्प और आनन्द आत्मा के प्रत्यक्ष करण हैं और इनकी प्राप्ति आत्मा में, दिव्य सत्ता में विकास के द्वारा ही हो सकती है, अतएव इस प्रकार का विकास हमारे योग का प्रथम लक्ष्य होना चाहिये । मनोमय प्राणी को पहले विस्तृत होकर भगवान् के एकत्व की अवस्था में पहुंचना होगा, उसके बाद ही भगवान् व्यक्ति की आत्मा में उसके अतिमानसिक विकास को पूर्णत्व प्रदान करेंगे । यही कारण है कि साधक के लिये ज्ञान, कर्म और प्रेम का त्रिविध मार्ग सम्पूर्ण योग का प्रधान स्वर बन जाता है, क्योंकि यही एक ऐसा सीधा मार्ग है जिसके द्वारा मनोमय पुरुष अपने उच्चतम भावावेगों तक उठ जाता और वहां वह ऊपर की ओर दिव्य एकत्व में चला जाता है । और यही कारण है कि योग को सर्वांगपूर्ण होना चाहिये । क्योंकि, यदि अनन्त में निमज्जन या भगवान् के साथ किसी प्रकार का घनिष्ठ एकत्व ही हमारा सम्पूर्ण लक्ष्य हो तो, सर्वांगीण योग का कुछ प्रयोजन ही नहीं रहेगा; हां, सम्पूर्ण मानव--सत्ता को उसके मूल स्रोत की ओर उठा ले जाने से हमें जो महत्तर तृप्ति प्राप्त हो सकती है उसके लिये सर्वागपूर्ण योग की आवश्यकता होने की बात दूसरी है । परन्तु वास्तविक लक्ष्य के लिये इसकी कोई भी आवश्यकता नहीं होगी; क्योंकि ६२० भगवान् के साथ मिलन तो हम अन्तरात्म-प्रकृति की किसी एक शक्ति के द्वारा भी प्राप्त कर सकते हैं; प्रत्येक शक्ति अपनी पराकाष्ठा को पहुंचकर ऊपर की ओर अनन्त और निरपेक्ष सत्ता में उठ जाती है, अतएव, प्रत्येक शक्ति अनन्त सत्तातक पहुंचने के लिये एक समर्थ मार्ग प्रदान करती है, क्योंकि सैकड़ों अलग-अलग मार्ग सनातन में पहुंचकर एक हो जाते हैं । परन्तु विज्ञानमय अस्तित्व का अभिप्राय है सम्पूर्ण दिव्य और आध्यात्मिक प्रकृति का पूर्ण उपभोग एवं उसपर पूर्ण अधिकार; और साथ ही इसका अर्थ है मनुष्य की सम्पूर्ण प्रकृति को उसकी दिव्य और आध्यात्मिक जीवन बिताने की शक्ति में पूर्ण रूप से उठा ले जाना, अतएव, इस योग के लिये यह शर्त आवश्यक हो जाती है कि इसे सर्वांगपूर्ण होना चाहिये ।
साथ ही हम यह भी देख चुके हैं कि त्रिमार्ग में से किसी एक का भी अनुसरण यदि एक प्रकार के व्यापक भाव से किया जाय तो, अपने शिखर पर पहुंचकर, वह दूसरे मार्गों की शक्तियों को भी अपने अन्दर समाविष्ट कर सकता है और उनका पूर्ण फल हमें प्राप्त करा सकता है । अतएव, इतना ही यथेष्ट है कि हम इनमें से किसी एक के द्वारा अपनी साधना आरम्भ करें और उस बिन्दु को ढूंढ़ निकालें जिस पर यह अपने ही विस्तारों के द्वारा, प्रगति की अन्य रेखाओं से जो पहले इसके समानान्तर थीं, मिल जाता है और फिर उनसे घुलमिलकर एक हो जाता है । तथापि एक अधिक कठिन, जटिल और पूर्ण प्रभावशाली प्रक्रिया यह होगी कि हम मानो, एक ही साथ, तीनों मार्गों पर अर्थात् आत्म-शक्ति के त्रिविध चक्र पर आरूढ़ होकर अपनी साधना आरम्भ करें । परन्तु इस प्रकार की साधना करना सम्भव है या नहीं इस विषय का विवेचन हमें तबतक स्थगित रखना होगा जबतक हम यह न देख लें कि आत्मसिद्धियोग की शर्तें और साधन-पद्धति क्या हैं । क्योंकि हम देखेंगे कि इस योग के निरूपण को भी पूर्ण रूप से स्थगित रखना उचित नहीं होगा, बल्कि इसकी एक प्रकार की तैयारी दिव्य कर्म, भक्ति और ज्ञान के विकास का अंग है तथा इसकी एक प्रकार की दीक्षा उक्त विकास के द्वारा अग्रसर होती है । ६२१ |